राम का राज्याभिषेक और कैकेयी का वरदान – बच्चों के लिए कहानी

अयोध्या नगरी में चारों ओर उल्लास था। महाराज दशरथ अब वृद्ध हो चुके थे और उनके मन की सबसे बड़ी इच्छा थी कि उनके प्रिय पुत्र राम को युवराज बनाया जाए। राम धीरे-धीरे राजकाज का अनुभव लेने लगे थे। वे प्रजा से प्रेम करते, विनम्रता से सभी की बातें सुनते और न्यायपूर्ण निर्णय देते। उनकी विद्या और पराक्रम का लोहा सब मानते थे। नगरवासियों के लिए वे केवल राजकुमार ही नहीं, बल्कि अपने परिवार का हिस्सा थे।

राजा दशरथ ने दरबार में घोषणा की—
“मैंने लंबे समय तक राज्य संभाला। अब शरीर में वह बल नहीं रहा। मेरी इच्छा है कि राम को युवराज पद सौंप दूँ। यदि आप सब सहमत हों तो कल ही उनका राज्याभिषेक किया जाए।”

सभा में हर्ष की लहर दौड़ गई। “राम की जय!” के नारों से महल गूंज उठा। महाराज दशरथ संतोष से भर उठे। उन्होंने तय किया कि शुभ काम में देर नहीं होनी चाहिए।

राम का राज्याभिषेक होने की खबर बिजली की तरह पूरे नगर में फैल गई। गलियों को सजाया जाने लगा, मंदिरों में दीपक जलने लगे और हर जगह उत्सव का माहौल बन गया।

लेकिन उस समय भरत और शत्रुघ्न अपने नाना केकयराज के महल में थे। उन्हें इस निर्णय की कोई जानकारी नहीं थी।

इधर महल में रानी कैकेयी की दासी मंथरा ने तैयारियाँ देखीं। चमक-दमक देखकर उसने सोचा कि कोई विशेष अनुष्ठान है। जब उसे पता चला कि कल राम का राज्याभिषेक होने वाला है, तो वह क्रोध से भर उठी। बचपन से कैकेयी की सेविका रही मंथरा, राम का राजा बनना कैकेयी और भरत के लिए अपमान मान रही थी।

राम का राज्याभिषेक और कैकेयी का वरदान

वह दौड़ती हुई कैकेयी के पास पहुँची। कैकेयी उस समय विश्राम कर रही थीं। मंथरा ने हाँफते हुए कहा, “रानी! यह सब षड्यंत्र है। यदि राम राजा बने तो भरत सदा उनके अधीन रहेंगे। कल राम का राज्याभिषेक होगा और भरत का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा।”

कैकेयी ने पहले इसे अनसुना किया और राम के प्रति अपने स्नेह की बात कही। लेकिन मंथरा चुप नहीं हुई। उसने कठोर शब्दों में कहा, “राम राजा बनेंगे तो भरत को राज्य से निकाल देंगे। सोचो रानी, तब तुम्हारी स्थिति क्या होगी? कौशल्या महारानी होंगी और तुम उनकी दासी।”

धीरे-धीरे मंथरा के शब्द कैकेयी के हृदय में उतरने लगे। उनकी आँखों से आँसू बह निकले। उन्होंने कहा, “तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूँ?”

मंथरा ने चालाकी से उत्तर दिया, “याद करो रानी! महाराज दशरथ ने तुम्हें दो वरदान देने का वचन दिया था। अब समय आ गया है। एक वरदान में भरत को युवराज बनवाओ और दूसरे में राम को चौदह वर्ष का वनवास दिलाओ। तभी भरत को राजकाज संभालने का अवसर मिलेगा।”

कैकेयी को मंथरा की बात उचित लगी। उसने निश्चय कर लिया। वह कोपभवन में जाकर बैठ गई— मैले वस्त्रों में, आँसू बहाते हुए, आभूषण जमीन पर फेंक दिए।

रात में जब दशरथ शुभ समाचार सुनाने कैकेयी के पास आए, तो कोपभवन का दृश्य देखकर चौंक गए। उन्होंने चिंतित होकर पूछा, “प्रिय, यह क्या हाल बना रखा है? तुम्हें क्या दुख है? मुझे बताओ, मैं तुम्हारे लिए कुछ भी करूँगा।”

राम का राज्याभिषेक और कैकेयी का वरदान

कैकेयी ने कहा,
“पहले वचन दो कि जो माँगूँगी, उसे पूरा करोगे।”

दशरथ ने राम की सौगंध खाकर कहा—
“हाँ, मैं तुम्हारी हर इच्छा पूरी करूँगा।”

तभी कैकेयी बोलीं—
“तो मुझे वे दो वरदान दो। भरत को युवराज बनाओ और राम को चौदह वर्षों के लिए वन भेज दो।”

दशरथ यह सुनकर जैसे पत्थर हो गए। उनके हृदय पर वज्र गिरा। उन्होंने विनती की,
“यह मत माँगो। राम मेरे प्राण हैं। उनके बिना मैं जीवित नहीं रह पाऊँगा।”

लेकिन कैकेयी अडिग रहीं। उन्होंने कहा,
“महाराज, आपने जो वचन दिया है, उसे निभाना ही होगा। रघुकुल की मर्यादा यही है कि प्राण जाएँ, पर वचन न टूटे।”

बेबस दशरथ आँसू बहाते रहे। रात भर महल में शोक छाया रहा। अगले दिन का सवेरा अयोध्या के लिए सब कुछ बदलने वाला था।

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