पावनखिंड (पावन दर्रा)

पन्हाला जीता और आदिलशाह का क्रोध : अफजल खान की हत्या से बीजापुर में खलबली मच गई । उसके बाद तुरंत ही शिवाजी महाराज ने पन्हालगढ़ जो बीजापुर के अधिकार में था, जीत लिया । इससे आदिलशाह बड़ा क्रोधित हुआ । उसे खाना-पीना अच्छा नहीं लग रहा था । शिवाजी महाराज को पराजित करने के लिए उसने सिद्दी जौहर नामक सरदार को भेजा । सिद्दी जौहर बहुत बड़ी सेना लेकर चल पड़ा । फजल खान भी पिता की हत्या का बदला लेने के लिए उसके साथ निकल पड़ा ।

पन्हालगढ़ को घेर लिया:  सिद्दी जौहर शूर-वीर पर क्रूर भी था । उसका अनुशासन कठोर था । उसने पन्हालगढ़ को चारों ओर से घेर लिया । शिवाजी महाराज को गढ़ में बंदी बनाया । बरसात के दिन निकट आ गए थे। शिवाजी महाराज ने सोचा कि वर्षा आरंभ होते ही सिद्दी जौहर घेरा उठा लेगा परंतु बरसात प्रारंभ होते ही उसने घेरा अधिक कड़ा कर दिया। किले में जो धन-धान्य था; वह समाप्त होने लगा। अब क्या करें ? यह शक्ति का काम नहीं है ! तब शिवाजी महाराज ने युक्ति से छुटकारा पाने का निश्चय किया ।

उन्होंने सिद्दी जौहर के पास संदेश भेजा कि ‘शीघ्र ही किला आपके अधीन करता हूँ ।’ वह प्रसन्न हुआ । उसने इस बात को स्वीकार कर लिया ।

घेरे से सिद्दी की सेना तंग आ गई थी। यह सुनकर सैनिक खुश हो गए कि शिवाजी महाराजशरण में आ रहे हैं ! वे खाने-पीने, गाने-बजाने और हुक्का-पानी में मग्न हो गए ।

शिवाजी महाराज घेरे से बाहर : शिवाजी महाराज ने घेरे से बाहर निकलने के लिए एक युक्ति सोची । योजना इस प्रकार थी – उन्होंने दो डोलियाँ तैयार करवाईं । एक डोली में बैठकर शिवाजी महाराज दुर्गम रास्ते से बाहर निकलेंगे और दूसरी में शिवाजी महाराज का स्वाँग भरनेवाला एक आदमी बैठकर महाद्वार के छोटे दरवाजे से बाहर निकलेगा । यह दूसरी डोली शत्रु सेना को सहज दिखाई देगी इसलिए वह पकड़ी जाएगी और शत्रु यह समझकर खुशी से झूम उठेंगे कि शिवाजी महाराज ही पकड़े गए हैं । इस बीच शिवाजी महाराज दुर्गम रास्ते से बाहर खिसक जाएँगे लेकिन शिवाजी महाराज का स्वाँग भरेगा कौन ? ऐसा स्वाँग भरना मौत के मुँह में जाना था लेकिन एक बहादुर जवान तैयार हो गया । दीखने में वह शिवाजी महाराज जैसा था और उसका नाम भी शिवाजी ही था । वह शिवाजी महाराज की सेवा में केशभूषा करनेवाला सेवक था । वह बड़ा साहसी और चतुर था ।

स्वाँग भरे हुए शिवाजी की डोली छोटे दरवाजे से बाहर निकल गई । रात का समय था । मूसलाधार बारिश हो रही थी फिर भी शत्रुओं की सेना पहरा दे रही थी। उन्होंने उस डोली को पकड़ लिया । शिवाजी महाराज को ही पकड़ लिया; यह मानकर वे उस डोली को सिद्दी जौहर की छावनी में ले गए। वहाँ सभी प्रसन्नता से नाचने-गाने लगे। इसी बीच शिवाजी महाराज दुर्गम रास्ते द्वारा गढ़ से बाहर निकल गए । साथ में बाजीप्रभु देशपांडे और उनके गिने-चुने सैनिक थे । उन्हीं के साथ बांदल देशमुख की सेना थी । इधर कुछ ही समय में उस शिवाजी का नकली रूप सामने आ गया । तब गुस्से में आकर सिद्दी ने उसे तुरंत मार डाला । शिवाजी महाराज के लिए, स्वराज्य के लिए इस शिवाजी ने आत्मबलिदान दिया । वह अमर हो गया ।

शिवाजी महाराज आँखों में धूल झोंककर खिसक गए, यह बात सिद्दी के ध्यान में आते ही वह तिलमिला उठा । उसने बड़ी तत्परता से अपने सरदार सिद्दी मसऊद को विशाल फौज के साथ शिवाजी महाराज का पीछा करने के लिए भेज दिया । पीछा शुरू हुआ । दिन निकलते ही उन्होंने शिवाजी महाराज को पांढरपाणी के झरने के पास पा लिया। शिवाजी महाराज उलझन में पड़ गए । उन्होंने बड़ी कठिनाई से घोड़ दर्रा पार किया ।

बाजीप्रभु का बाँकपन : झल्लाए हुए सिद्दी के सैनिक बड़ी तेजी से दर्रे की ओर बढ़े आ रहे थे । शिवाजी महाराज ने सोचा कि अब विशालगढ़ पहुँचना कठिन है । उन्होंने बाजीप्रभ से कहा, “बाजी, समय बड़े संकट का है। आगे चढ़ाई है । पीछे शत्रु है । अब विशालगढ़ तक पहुँचना कठिन है । चलो, पीछे लौटकर शत्रु का मुकाबला करते हैं ।” बाजीप्रभु शिवाजी महाराज के मन में उत्पन्न दुविधा को जान गए । शत्रु बिफरकर दर्रे की दिशा में आ रहा था । शिवाजी महाराज का जीवन खतरे में था । संपूर्ण स्वराज्य खतरे में था । बाजीप्रभु ने अधीर होकर शिवाजी महाराज से कहा, “महाराज, आप कुछ सैनिकों के साथ विशालगढ़ की ओर चलिए । बचे हुए सैनिकों के साथ मैं दर्रे के मुँह पर खड़ा रहता हूँ । महाराज, मैं मर जाऊँगा पर शत्रु को दर्रा पार करने न दूँगा । एक ‘बाजी’ गया तो आपको दूसरा मिलेगा लेकिन स्वराज्य को शिवाजी महाराज की जरूरत है । शत्रुओं की संख्या अधिक है। हम संख्या में कम हैं। यहाँ हम टिक नहीं सकेंगे । आप यहाँ न रुकिए । हम दर्रे पर डटे रहेंगे । शत्रु को हम यहीं रोक लेंगे । जब तक आप गढ़ पर नहीं पहुँचते हैं, तब तक हम शत्रु को यहीं रोक रखते हैं । आप निश्चिंत होकर जाइए ।” बाजीप्रभु की स्वामिभक्ति देखकर शिवाजी महाराज का मन भर आया । बाजीप्रभु जैसा रत्न खोना उन्हें स्वीकार नहीं था किंतु उन्हें स्वराज्य के लक्ष्य तक पहुँचना था । उन्होंने अपने मन को समझाया । शिवाजी महाराज ने बाजीप्रभु को बड़े प्यार से गले लगाया और कहा, “हम गढ़ पर जाते हैं। वहाँ पहुँचते ही तोपों की आवाज होगी फिर दर्रा छोड़कर आप तुरंत चले आना ।”

Shivaji Maharaj with Bajiprabhu deshpande

बाजीप्रभु ने शत्रु को रोका : बाजीप्रभु को दर्रे में छोड़कर शिवाजी महाराज विशालगढ़ की ओर बढ़े । बाजीप्रभु ने शिवाजी महाराज को झुककर प्रणाम किया । फिर उसने अपने हाथ में तलवार ली और वह दर्रे के मुँह पर आ खड़ा हुआ । उसने मावलों की टोलियाँ बनाईं । उनके स्थान निर्धारित किए । मावलों ने गिट्टी-पत्थर इकट्ठे किए और पूरी तैयारी के साथ अपनी-अपनी जगहों पर जा खड़े हुए। दर्रे के मुँह पर मावलों की फौलादी दीवार खड़ी हो गई। इसी समय शत्रु के युद्ध के नारे सुनाई पड़े। शत्रु दर्रे के नीचे आ गया था। बाजीप्रभु ने मावलों से कहा, “बहादुर सैनिको, सावधान ! प्राण भले ही त्याग दो पर अपने-अपने स्थान पर डटे रहो । शत्रु दर्रा पार न करने पाए।” बाजीप्रभु और उसके मावले साथी दर्रे के मुँह पर पैर जमाकर खड़े हो गए । दर्रे का मार्ग कठिन और टेढ़ा-मेढ़ा था । एक साथ तीन-चार आदमी मुश्किल से ऊपर चढ़ सकते थे ।

उधर शिवाजी महाराज विशालगढ़ की ओर हवा की तरह बढ़े जा रहे थे। विशालगढ़ का किला अभी दूर था। गढ़ पर पहुँचने के लिए शिवाजी महाराज को डेढ़-दो घंटे का समय और चाहिए था । उतनी देर तक यदि बाजीप्रभु दर्रे के मुँह पर शत्रु से संघर्ष करता रहा तो शिवाजी महाराज की विजय निश्चित थी ।

दरें में युद्ध : दर्रे में घमासान युद्ध शुरू हुआ । शत्रु की सेना दर्श चढ़ने लगी। शत्रु की पहली टुकड़ी दरें में आकर रुक गई। मावलों ने शत्रु पर पत्थरों की वर्षा शुरू की। पत्थर बरसाने में मावले होशियार थे। वे चतुराई से युद्ध करने लगे । शिवाजी महाराज के मावलों ने कई शत्रुओं का सफाया किया। कई सैनिकों के सिर फूट गए । पहली टुकड़ी पराजित हुई। वह पीछे हटी । फिर दूसरी टुकड़ी बड़े उत्साह से दर्रा चढ़ने लगी । बाजीप्रभु चिल्ला उठा, “मारो, काटो !” मावले जोश से भर उठे। ‘हर-हर महादेव’, का नारा लगाते हुए वे शत्रु पर टूट पड़े। पत्थरों की वर्षा शुरू हुई । शत्रु धड़ाधड़ गिरने लगे। जोश के साथ बाजीप्रभु चिल्लाया, “शाबाश, मेरे वीर सिपाहियो ! और पत्थर बरसाओ । शत्रु को मारो। जोर से प्रहार करो । शाबाश ।” दूसरी टुकड़ी नष्ट हुई ।

उधर घोड़े पर सवार शिवाजी महाराज विशालगढ़ की ओर तेजी से बढ़ते जा रहे थे। गढ़ की सीमा निकट आ रही थी। प्रत्येक क्षण बड़ा ही महत्त्वपूर्ण था। विशालगढ़ के नीचे शत्रुओं की घेरा बंदी थी। शिवाजी महाराज ने कुछ चुने हुए साथियों के साथ शत्रु पर आक्रमण कर दिया । शत्रु सैनिकों से मुकाबला करते हुए शिवाजी महाराज आगे बढ़े। वे अपने मावलों के साथ शत्रु के घेरे को तोड़कर विशालगढ़ की ओर बढ़ रहे थे।

बाजीप्रभु का पराक्रम: यहाँ घोड़ दर्रे में घमासान चल रहा था । सिद्दी मसऊद क्रुद्ध हो उठा था । उसकी तीसरी टुकड़ी दर्श चढ़ने लगी। मराठों ने अपूर्व वीरता का परिचय दिया। शत्रु ने बाजीप्रभु पर हमला किया । उसको घेर लिया। बाजीप्रभु आवेश से लड़ने लगा, उसने अद्भुत पराक्रम दिखाया। बाजीप्रभु के शरीर पर बहुत प्रहार हुए थे। अंग-अंग पर घाव लगे थे । शरीर से खून की धाराएँ बहने लगी थीं फिर भी वह अपने स्थान पर अडिग रहा। उसका सारा शरीर खून से लथपथ हो गया था। मगर वह पीछे नहीं हटा। उसने मावलों को ऊँची आवाज में आदेश दिया। मावलों ने बड़े जोश के साथ शत्रु पर धावा बोल दिया। शत्रु पीछे हटा। बाजीप्रभु घायल हो गया था। फिर भी युद्ध जारी रखने के लिए वह मावलों को प्रेरणा दे रहा था। उसका सारा ध्यान तोपों की आवाजों की ओर लगा था ।

वह पावन दर्रा : उसी समय तोप की आवाज हुई । युद्ध भूमि में गिरे हुए बाजीप्रभु के कानों में तोपों की आवाज सुनाई पड़ी “महाराज गढ़ पर पहुँच गए । मैंने अपना कर्तव्य पूरा किया । अब मैं प्रसन्नता से मरता हूँ।” कहकर स्वामिभक्त बाजीप्रभु ने प्राण त्याग दिए । जब विशालगढ़ पर महाराज को इस बात का पता चला तब उन्हें बहुत दुख हुआ और उन्होंने कहा “बाजीप्रभु देशपांडे स्वराज्य के लिए शहीद हुए । बांदल के लोगों ने पराकाष्ठा का युद्ध किया ।”

बाजीप्रभु जैसे देशभक्तों के कारण ही स्वराज्य आगे बढ़ा । उस स्वामिभक्त के रक्त से घोड़ दर्रा पवित्र हुआ । ‘पावन दर्रे’ के नाम से यह दर्रा इतिहास में अमर हुआ। धन्य थे वे वीर और धन्य था बाजीप्रभु ।

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